एस्पिरेंट्स सीज़न 2 – सीरीज़ रिव्यू – The Lallantop
शो की लिखाई की सबसे मज़बूत बात है कि उसने किरदारों के इमोशनल कोर के साथ छेड़छाड़ नहीं की. उनके आसपास की दुनिया बदलती है, वो लोग नहीं.
पांच एपिसोड में बंटा शो अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हुआ है.
साल 2021. कोरोनाकाल का समय था. TVF ने ‘एस्पिरेंट्स’ नाम का शो उतारा. कहानी दिल्ली के राजेन्द्र नगर और उसमें रहने वाले लड़के-लड़कियों की थी, जिन्हें बस किसी भी तरह UPSC क्रैक करना है. ये टिपिकल फील गुड किस्म का TVF शो नहीं था. लोगों को पसंद आया. क्रिटिक्स ने ‘एस्पिरेंट्स’ की तारीफ की. शो सिर्फ आम लोगों के बीच ही नहीं रहा. मनोज बाजपेयी ने शो देखा और ठान लिया कि इसके डायरेक्टर अपूर्व सिंह कार्की ही उनकी अगली फिल्म बनाएंगे. TVF के उसी महा पॉपुलर शो का अब दूसरा सीज़न आया है. मुझे क्या अच्छा लगा, क्या खामियां दिखीं, अब बात ऐसे सभी पॉइंट्स पर.
‘एस्पिरेंट्स सीज़न 2’ का कोर आइडिया डूऐलिटी है. शो का नैरेटिव दो टाइमलाइन में चलता है. पुराने में हम देखते हैं कि अभिलाष अपने आखिरी अटेम्प्ट में जी तोड़ मेहनत कर रहा है. अपने पुराने यारों से नज़र बचाकर राजेन्द्र नगर में ही रह रहा है. नए में वो रामपुर का डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट है. जिस चीज़ के लिए खुद से महान त्याग किए, मन मारकर भी खुद को पढ़ाई में लगाए रखा, वो मेहनत सार्थक हो गई है. कायदे से अब ऐश ही ऐश होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं होता. उसकी असली लड़ाई सफल होने के बाद ही शुरू होती है. अब तक द्वंद सिर्फ बाहरी दुनिया से था. दोस्तों से था, प्रेमिका से था. अब लड़ाई खुद से भी है. लड़ाई मन के कोने में पैठ मारे उस विश्वास से है, जो अनिश्चितता से मुकाबला नहीं करना चाहता. जो खुद के अंदर बसे-बसाए आइडिया को चैलेंज करने में सहज महसूस नहीं करता. ‘एस्पिरेंट्स सीज़न 2’ ऐसी ही चुनौतियां अभिलाष के सामने लाकर धर देती है. वो इनसे लड़ेगा या भागेगा और फिर ऐसे फैसलों का परिणाम क्या होगा, यही पांच एपिसोड में फैले शो की कहानी है.
# इट्ज़ अ बॉयज़ वर्ल्ड
‘एस्पिरेंट्स 2’ के शुरुआत में एक सीन है. अभिलाष, गुरी और SK साथ आकर सेल्फी खींचते हैं. कैमरे में देखकर चीज़, पनीर की जगह ट्राइपॉड कहते हैं. तब फ्रेम से बाहर रह चुकी धैर्या टोकती है कि यहां और भी लोग है. इस एक छोटे से सीन से शो की राइटिंग के बारे में दो बड़ी बातें साफ हो जाती हैं. पहली तो ये कि इनकी दोस्ती का बहुत इम्तिहान होने वाला है. दूसरा ये है कि उन लड़कों की तरह शो को भी क्लियर आइडिया नहीं कि अपने यूनिवर्स की महिलाओं के साथ क्या किया जाए.
एस्पिरेंट्स की दुनिया पूरी तरह से चार आदमियों पर केंद्रित हैं – अभिलाष, SK, गुरी और संदीप. इन्हीं लोगों के बीच हैं दो महिलाएं – धैर्या और दीपा. धैर्या पहले सीज़न से है. दीपा इसी सीज़न में जुड़ी. मसला है कि ये शो अपनी महिलाओं के लिए उनकी स्वतंत्र दुनिया नहीं बना पाता. या तो उनका हर फैसला जीवन में मौजूद पुरुष को ध्यान में रखकर लिया जा रहा है. या किसी पुरुष के फैसले का असर उन पर हो रहा है. कुल मिलाकर उनकी गाड़ी पुरुषों के फैसलों के बीच ही घूम रही है. इसकी खानापूर्ति करने के लिए कुछ सीन छिड़के गए. हम देखते हैं कि धैर्या अपने NGO के लिए काम कर रही है. मसला है कि वो सीन बस किसी कमी को पूरी करने की कोशिश जैसे लगते हैं.
दीपा के साथ भी यही केस है. एक जगह हम देखते हैं कि अभिलाष उसकी सिगरेट छुड़ाने में मदद करता है. बता दें कि उस सीन से पहले किसी भी पॉइंट पर ये हिंट नहीं दिया गया कि दीपा स्ट्रेस में आकर लगातार सिगरेट पीती है. यहां भी अभिलाष के लिए फैसले से उसकी ज़िंदगी बेहतर हुई. कुछ ऐसे सीन रखे जा सकते थे जहां उसका अपनी लत के साथ संघर्ष दिखाया जा सकता. या टीज़ ही कर दिया जाता कि उसे सिगरेट पीने की आदत है.
# ‘धागा ये टूटे ना ये धागा’
‘एस्पिरेंट्स’ की दुनिया में बहुत कुछ घट जाता है. लेकिन शो की लिखाई की सबसे सॉलिड बात ये है कि वो दुनिया को बदलता है, उसमें मौजूद किरदारों को नहीं. लड़कों की लाइफ में नए चैलेंज आते हैं. लेकिन वो अंदर से वैसे ही हैं. उनके इमोशनल कोर के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई. SK अभी भी वही दोस्त है जो मतभेद बर्दाश्त नहीं कर सकता चाहे वो किसी भी रिश्ते में हो. खुद से ऊपर का प्रयास करता है कि दो लोगों के बीच का बैर जल्द से जल्द खत्म हो. दूसरी ओर अभिलाष भी नहीं बदला. अभी भी उसके अधिकांश फैसले ‘मैं’ से निकलते हैं. उसके करीबी लोग उससे निराश होते हैं. उस पर गुस्सा भी आता है. लेकिन खुद को समझा लेते हैं कि अभिलाष ऐसा ही है और शायद ऐसा ही रहेगा भी.
गड़बड़ वहां हो जाती अगर दूसरे सीज़न के साथ किरदार पूरी तरह बदल जाते. खुद के नेचर के विपरीत जाकर फैसले लेने लगते. शो पूरी एहतियात बरतता है कि ऐसा ना हो. शो अपने किरदारों के ज़रिए लगभग हर चीज़ पर क्लियर स्टैंड रखता है. लेबर कमिशन के अधिकारी संदीप को लगता है कि फैक्ट्री का मालिक मजदूरों का हक मार रहा है. दूसरी ओर DM अभिलाष को दिखता है कि फैक्ट्री का कोई मुनाफा ही नहीं हुआ, तो वो पैसे बढ़ाकर कैसे दे. वो उस विचारधारा की ओर झुकता है जो मानती है कि समाज की हर समस्या के लिए अमीरों को दोष देना ज़रूरी नहीं. संदीप भईया संसाधनों से वंचित लोगों के लिए लड़ते रहना चाहते हैं. मानते हैं कि अमीर मालिकों के सामने टेढ़ी उंगली से ही घी निकलेगा.
शो इन दोनों विचारधाराओं को बराबर ढंग से तवज्जो देता है. किसी एक को सही और दूसरे को गलत करार नहीं देता. दो लोग हैं, उनकी ऐसी विचारधारा है और वो उसमें डूबकर यकीन करते हैं. उसमें कोई हर्ज़ नहीं. शो बस एक बात को लेकर अपना स्टैंड साफ नहीं रखता. खुद को UPSC में झोंक देना कितना ठीक है. या कितने त्याग को ज़रूरी माना जाए. कोई भी किरदार किसी दूसरों को नहीं समझाता दिखता कि बंधु, कोई बात नहीं. UPSC के बाहर भी दुनिया है.
बाकी अपनी तमाम खामियों के बाद भी ‘एस्पिरेंट्स 2’ एक मज़बूत अपग्रेड है. जिस बुनियाद पर उस दुनिया को रचा गया था, ये दूसरा सीज़न उसे कभी भी नहीं भूलता. पांचों एपिसोड में से क्लाइमैक्स वाला सबसे हल्का था. ऐसा बस तीसरे सीज़न के लिए कायदे की हवा बनाने के लिए किया गया. जिस नोट पर शो खत्म हुआ उसके बाद तीसरे सीज़न का इंतज़ार करना लाज़मी होगा.
वीडियो: सीरीज रिव्यू: परमानेंट रूममेंट्स
Adblock take a look at (Why?)